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Friday 25 October 2013

Grah Deep By Acharya Dr. Santoshi ji .




ग्रह दीप ....
जीवन में किसी भी प्रकार की शुभता के निमित्त , तत्काल आचार्य डॉ . संतोषी जी से संपर्क कर के मंगवाएं, और अपने जीवन को खुशियों की ओर ले जायें। आचार्य श्री के द्वारा अनुसंधान किया गया यह दीप कई प्रकार के प्राकृतिक औषधियों से ओत प्रोत है , जो अपने अंदर उपस्थित समस्त शक्तियों को एकदम से आप की तरफ ले जायेगा , जिस से आप की कुंडली में असंतुलित ग्रह स्वतः संतुलन की दिशा में अग्रसर होंगे।
आचार्य डॉ . संतोष उपाध्याय " संतोषी जी ' ज्योतिष के क्षेत्र में सर्वोपरि हो चुके हैं , इन्हें सत्यवादिता और सपष्ट वादिता और रत्नों के विरोधी के रूप में जाना जाता है।

Thursday 8 August 2013

हरियाली तीज की हरियाली शुभकामनाएं :) :)

हरियाली तीज की शुभकामनाएं .......
क्यूँ मानते हैं हरियाली तीज ? ..... !!!

श्रावण माह के शुक्ल पक्ष में तृतीया तिथि को विवाहित महिलाएं हरियाली तीज के रुप में मनाती हैं। यह समय है जब प्रकृति भी अपने पूरे शबाब में होती है, बरसात का मौसम अपने चरम पर होता है और प्रकृति में सभी ओर हरियाली होती है जो इसकी खूबसूरती को दुगुना कर देती है। इसी कारण से इस त्यौहार को हरियाली तीज कहते हैं।

परंपरा के अनुसार तीज सभी पर्वों के शुरुआत की प्रतीक मानी जाती है। आ गई तीज बिखेर गई बीज, आ गई होली भर गई झोली कहावत के आधार पर तीज पर्व के बाद त्यौहारों का शीघ्र आगमन होता है और यह सिलसिला होली तक चलता है। इस व्रत को अविवाहित कन्याएं योग्य वर को पाने के लिए करती हैं. विवाहित महिलाएं इसे अपने सुखी और लंबे विवाहित जीवन के लिए करती हैं।

किंवदंती है कि पुरातन समय में देवी पार्वती एक बार अपने पति भगवान शिव से दूर प्रेम विरह की गहरी पीड़ा से व्याकुल थीं। इस तड़प के कारण देवी पार्वती ने इस व्रत को किया था। पार्वती जी इस दिन पति परमेश्वर के प्रेम में इतनी लीन हो गईं कि उन्हें न खाने की सुध रही है और न पीने की। इस तरह वह पूरे 24 घंटे व्रत रहीं और इस व्रत के फल के रूप में उन्हें अपने पति का साथ पुनः प्राप्त हुआ। तब से इस दिन स्त्रियां अपने सुहाग के लिए उपवास रखकर मनोकामनाएं पूरी होने का आशीर्वाद मांगतीं हैं।

श्री राधे - श्री कृष्णा 
आचार्य डॉ . संतोष उपाध्याय " संतोषी जी "

Sunday 13 January 2013

कुम्भ का करिश्मा .. " Kumbh Ka Karishma " .

अनादि अनन्त काल से भारत में चली आ रही कुम्भ महापर्व की परम्परा एक ओर जहां भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति के विराट एक्यता का परिचायक है वहीं दूसरी ओर यह दर्शन, ज्योतिष, आस्था, भक्ति-भावना, निष्ठा, विश्वास आदि का भी द्योतक है। खगोल विज्ञान, ज्योतिष शास्त्र एवं पौराणिक  आख्यान-सन्दर्भों से जुड़े इस सांस्कृतिक पर्व की अवधारणा जन्म-मृत्यु, लोक-परलोक, अमरत्व  साधना की गुत्थियां सुलझाने के एक प्रयास को भी प्रतिबिम्बित करती है। द्वादश वर्षीय निश्चित अवधि के अंतराल पर आयोजित होने वाले इस महापर्व में देश-विदेश से लाखों की संख्या में आये साधकों, भक्तों तथा साधु-संतों, सिद्ध पुरुषों, विद्वानों, विचारकों, चिन्तकों का जमावड़ा होता है और श्रद्धालु जन-मनीषा श्रद्धा भक्ति भाव से उनके सारगर्भित वाणी का श्रवण कर, उनके चरण स्पर्श एवं दर्शन कर अपने जीवन को सार्थक मानती है।
इस महापर्व की जड़ें  नदी पूजन से जुड़ी हैं और कुछ विद्वानों की मान्यता है कि यह त्योहार-पर्व आर्यों के आगमन के पूर्व से ही प्रचलित है जबकि इसके वास्तविक उद्ïगम काल का निर्धारण करना कठिन है। कुम्भ, जैसा कि नाम से प्रतीत होता है, मातृगर्भ का प्रतीक है, मां जो जगदजननी है, जन्मदात्री है इस तरह यह मां का प्रतिबिम्ब है और नदी उर्वरता का द्योतक। इस तरह यह मानव जन्म से भी संयुक्त लगता है। पौराणिक मान्यतानुसार कुम्भ पर्व का संबंध देवासुर संग्राम से है। अमृत प्राप्ति हेतु जब देव-दनुजों के संयुक्त उपक्रम से सागर मन्थन किया गया जिसमें कच्छप रूपधारी विष्णु सागर की तल में स्थित होकर मथानी रूपी मन्दराचल को अपने पृष्ठभाग पर धारण किया और नाग वासुकी को मथानी की रस्सी के रूप में प्रयुक्त किया गया तब अंत में धन्वन्तरि अमृत कुम्भ के साथ प्रकटे। उस समय इन्द्र पुत्र जयन्त अमृत कुम्भ उनसे वलात ले लिया और भाग चले। दानवों ने उनका पीछा किया। जयन्त के साथ सूर्य, चन्द्र, गुरु भी कुम्भ की रक्षा के लिए चल पड़े। देवताओं ने दानवों को रोकने का प्रयास किया जिससे उनमें संग्राम छिड़ गया जो बारह दिनों तक चलता रहा। जयन्त भी बारह दिनों में कुम्भ ले स्वर्ग पहुंचे पर मार्ग में वह पृथ्वी पर चार स्थानों— प्रयाग, हरिद्वार, उज्जयिनी तथा नासिक में तथा देवलोक में आठ स्थानों पर विश्राम के लिए रुके जहां सूर्य, चंद्र, गुरु कुम्भ की रखवाली करते रहे। पृथ्वी पर चारों स्थानों पर अमृत की कुछ बूंदें छलक पड़ीं और इसीलिए इन चारों स्थानों पर प्रत्येक बारह साल में क्रमानुसार कुम्भ पर्व मनाया जाता है (अन्य शब्दों में हर तीसरे साल एक-एक स्थान पर कुम्भ मनाते हुए उसी स्थान पर दोबारा बारह साल में कुम्भ पर्व मनता है)।
इस महापर्व का प्रत्यक्ष संबंध खगोल विज्ञान की गणनानुसार सौरमंडल स्थित ग्रह-नक्षत्रों आदि की गति से है। जब आकाश में ग्रह, नक्षत्र, राशि एवं तिथि का विशिष्ट योग बनता है तब उस काल को कुम्भ पर्व कहा जाता है। पौराणिक आख्यानानुसार चूंकि कुम्भ की रक्षा में चार खगोलीय सूत्रधार सूर्य, चंद्र, गुरु तथा शनि थे जिन्हें लोक परंपरानुसार ही नहीं खगोलीय गणना में भी महत्वपूर्ण माना जाता है। उल्लेख है कि सौरमंडल स्थित विशिष्ट ग्रहों के खगोलीय संयोगों के कारण, विशिष्ट राशियों में प्रत्येक बारह वर्ष पश्चात प्रविष्ट होने पर प्रयाग, उज्जयिनी, नासिक तथा हरिद्वार में कुम्भ पर्व का आयोजन होता है। द्वादश वर्षीय अंतराल का कारण यह है कि ज्योतिष शास्त्र में कुल बारह राशियां हैं और उनको विशिष्ट खगोलीय संयोग में आने के लिए बारह वर्ष लगते हैं। उदाहरण के लिये जब सूर्य, चंद्र, मकर राशि में तथा गुरु वृषभ राशि में होते हैं तब प्रयाग में, जब सूर्य, चन्द्र मेष राशि में तथा गुरु कुम्भ राशि में होते हैं तब हरिद्वार में कुम्भ पड़ता है। उज्जैन (उज्जयिनी) में कुम्भ के लिए दश योग का होना आवश्यक है। प्रसंगवश महाकुम्भ या पूर्णकुम्भ केवल प्रयाग में होता है जो प्रत्येक बारह वर्ष में आता है। (हर छठवें वर्ष अद्र्धकुम्भ होता है) और इसमें पडऩे वाली अमावस्या महत्वपूर्ण होती है। यदि अमावस्या सोमवार को पड़े तो उसका विशिष्ट महत्व होता है। (सन् 2001 में प्रयाग में पूर्णकुम्भ पड़ा था  तथा उस साल अमावस्या सोमवार को थी) इन चारों स्थानों को, जहां अमृत बूंद छलका माना जाता है, तीर्थ कहते हैं और प्रयाग को तीर्थराज। विदित हो कि आध्यात्मिक मान्यतानुसार तीर्थ धरती तथा स्वर्ग, मनुष्य देवताओं के बीच सेतु माने जाते हैं।
गंगा तट (हरिद्वार), शिप्रा तट (उज्जैन), गोदावरी तट (नासिक) तथा गंगा-यमुना-सरस्वती संगम तट (प्रयाग) पर आयोजित होने वाले कुम्भ पर्व/महाकुम्भ आध्यात्मिक चेतना की ज्योति प्रभासित करते हैं एवं भौगोलिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एकता की महत्वपूर्ण भूमिका  का निर्वहन करते हैं। पौराणिक मान्यतानुसार कुम्भ में इन पावन नदियों में स्नान, दान, यज्ञ, हवन, सत्संग, कथा श्रवणादि से मनुष्य के सारे पाप धुल जाते हैं। इसी दृढ़ आस्था से लाखों की संख्या में लोग कुम्भ में वहां जाते हैं तथा भाषा, साम्प्रदायिक संकीर्णता, जात-पात के भेदभाव से परे हट कर पवित्र नदियों के  जल में डुबकी लगा उनकी जयकार कर विश्वास कर लेते हैं कि उनके सारे पाप धुल गये। वहां आने वालों का एक उद्देश्य वहां आए महान संतों, साधुओं-ऋषियों आदि का दर्शन कर उनके चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेना भी होता है तथा सबमें मोक्ष की कामना कहीं  अधिक बलवती होती है। अर्थवेद में कहा गया है ”पूर्णकुम्भो अधिकाल अहिरत, वे पश्यामो बहुधा नु सन्त:। स इमा विश्वा-भुवनानि प्रत्यङ्गकाले तमाहु: परमे व्योमन्॥” भावार्थ यह कि पूर्णकुम्भो काल (मृत्यु) के ऊपर स्थित है जबकि काल समस्त लोकों में चलायमान है जिनसे रक्षा वहां संत ही करते हैं, इसलिए भी पूर्णकुम्भ या महाकुम्भ महत्वपूर्ण माना जाता है।
वस्तुत: कुम्भ पर्व भारतीय विचार परंपरा का ऐसा सनातन पर्व है जिसमें अध्यात्म, संस्कृति, धर्म, दर्शन, ज्योतिष, पुराणादि के साथ लोक आस्था, निष्ठा, विश्वास, श्रद्धा, भक्ति भी समाहित हो गया। कुछ के लिये तो यह पर्व ‘जीवन में मात्र एक बार’ है। इसीलिए ऐसे लोग तीर्थराज प्रयाग के महाकुम्भ की यात्रा कर अपना जीवन सार्थक कर मोक्ष की कामना करते हैं