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Sunday 19 February 2012

Jay Shiv Shambhu !! Har Har Mahadev


हर हर महादेव :-----
जय भोले शंकर :------


20 फरवरी को महाशिवरात्रि 65 वर्ष पश्चात पंचांग व ग्रहों के दुर्लभ संयोग के साथ आ रही है। इस दिन वार, तिथि, नक्षत्र, योग, करण एवं ग्रहों पर शिव का प्रभुत्व रहेगा। ऐसा संयोग 'शिव संयोग' कहलाता है। शिव महापुराण के अनुसार जब-जब ग्रहों के परिभ्रमण में पंचांग एवं ग्रहों का संयोग राशि तथा नक्षत्र के आधार पर एक जैसा बनता है, तो इसे शिव संयोग कहते हैं। इस शिवरात्रि पर ऐसा ही विशिष्ट संयोग बन रहा है, जो धर्म, ध्यान व अनुष्ठान के लिए विशेष पुण्य फलदायी है।  इस दिन क्रमशः भगवान गणेश, लक्ष्मी, कुबेर, चंद्रमा तथा प्रधान देव शिव का पूजन करें। अभीष्ट की प्राप्ति के लिए मध्यरात्रि में साधना व सिद्घि फलदायी रहेगी

ऐसे बना संयोग :  स्थानीय रेखांश व समय की गणना के आधार पर 20 फरवरी को दिन सोमवार, तिथि चतुर्दशी, श्रवण नक्षत्र, बारयान योग तथा सिद्घि योग है। नवग्रहों के अंतर्गत चंद्रमा मकर, सूर्य तथा बुध कुंभ एवं शनि तुला राशि में परिभ्रमण कर रहे हैं। पंचांग व ग्रहों की यह स्थिति 21 फरवरी 1955 को बनी थी।
क्या है विशेष :  सोमवार के दिन के स्वामी शिव है, चतुर्दशी के स्वामी भी शिव है, सिद्घि योगाः के साथ शनि का तुला राशि में परिभ्रमण, श्रवण नक्षत्र की उपस्थिति, वरियान योग का मध्यरात्रि काल शिवरात्रि पर विशेष महत्व रखता है। इसमें मंत्र दीक्षा, इष्ट मंत्र सिद्धि, श्री यंत्र सिद्धि, रुद्र यंत्र सिद्धि, बगलामुखी यंत्र सिद्धि आदि मध्यरात्रि में की जाती है।

शिव कृपा का महा पर्व शिवरात्रि 
पुराणों में भोलेनाथ के रोचक प्रसंग
सबसे प्रथम ब्रह्मा तथा विष्णु ने भगवान शंकर के लिंग की तथा मूर्ति की पूजा की थी। इससे प्रसन्न होकर शिवजी ने कहा - प्यारे ब्रह्मा तथा प्रिय विष्णु! आज का दिन महान है। आज तुमने ज्योतिर्लिंग के माध्यम से मेरे ब्रह्मस्वरूप का पूजन किया है, उसके बाद मूर्ति रूप में प्रकट मेरे चिन्मय स्वरूप का अर्चन किया है। इससे मैं प्रसन्न हुआ हूँ। मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि तुम दोनों अपने-अपने कार्यों में सफल हो जाओ। आज की यह तिथि जगत में 'महाशिवरात्रि' के नाम से प्रसिद्ध होगी।  इस तिथि में जो मेरे लिंग अथवा मूर्ति की पूजा करेगा, वह पुरुष जगत की उत्पत्ति-पालन आदि कार्य भी कर सकेगा। जो पुरुष अथवा स्त्री शिवरात्रि काल में अपनी शक्ति के अनुसार निश्चल भाव से मेरी पूजा करेगा, उसे एक वर्ष तक पूजा करने का फल तुरंत ही मिल जाएगा। मेरा विशाल ज्योतिर्लिंग पृथ्वी पर अत्यंत छोटा होकर रहेगा जिससे सब देव-मनुष्य और आध्यात्मिक साधन परायण भक्त पूजन कर सकेंगे। यह भूतल भी 'लिंग स्थान' के नाम से प्रसिद्ध होगा।  अग्नि के पहाड़ के समान यह मेरा लिंग जहाँ प्रकट हुआ है, वह स्थान अरुणाचल के नाम से प्रसिद्ध होगा। भगवान शिव के दो स्वरूप हैं। एक निष्कल और दूसरा सकल। निष्कल रूप का अर्थ है निर्गुण-निराकार शुद्ध चेतन ब्रह्मभाव जो लिंग रूप है तथा सकल का अर्थ सगुण साकार विशिष्ट चेतन महेश्वर रूप जो मूर्तिमय है। जैसे वाच्य और वाचक में भेद नहीं होता, वैसे ही लिंग और लिंगी में भेद नहीं है। शिव पूजन में शिवलिंग तथा शिव मूर्ति दोनों का पूजन श्रेष्ठ माना गया है तो भी मूर्ति की अपेक्षा शिवलिंग पूजन का विशेष महत्व है। कारण लिंग अमूर्त ब्रह्म चेतन का प्रतीक है तथा समष्टि स्वरूप है जो अव्यक्त चैतन्यसत्ता तथा आनंदस्वरूप है तथा मूर्ति व्यक्त-व्यष्टि एवं सावयव शक्ति है। इसलिए शिवलिंग की प्रतिष्ठा और प्रणव से होती है। मूर्ति की प्रतिष्ठा एवं पूजा 'नमः शिवाय' पंचाक्षर मंत्र से करने का विधान है। 
प्रणव के दो स्वरूप : एक सूक्ष्म प्रणव और दूसरा स्थूल प्रणव। अक्षर रूप में 'ओम्‌' सूक्ष्म प्रणव है और पाँच अक्षर वाला 'नमः शिवाय' मंत्र स्थूल प्रणव है। सूक्ष्म प्रणव के भी हृस्व-दीर्घ ये दो भेद हैं। प्रणव में तीन वर्ण हैं उनमें 'प्र' का अर्थ है प्रकृति से उत्पन्न महाजाल संसार रूप महासागर और 'नव' का अर्थ है इस संसार रूपी महासागर से तरने के लिए नूतन 'नाव'। इसीलिए ओंकार को प्रणव कहा है। प्रणव का दूसरा अर्थ है - 'प्र' प्रपंच 'न' नहीं है 'व' आपके लिए। इस प्रकार जप करने वाले साधकों को ज्ञान देकर मोक्षपद में ले जाता है। इससे विवेकी पुरुष ओंकार को प्रणव कहते हैं। दूसरा भाव यह है कि यह आप सब उपासक योगियों को बलपूर्वक मोक्ष में पहुँचा देगा। इसलिए भी ऋषि-मुनि इसे प्रणव कहते हैं अथवा जप करने वाले उपासक-साधकों को उनके पाप का नाश करके दिव्य ज्ञान देता है इसलिए प्रणव है। माया रहित भगवान महेश्वर को ही 'नव' यानी 'नूतन' कहा है, वह शिव परमात्मा नव-शुद्ध स्वरूप है। प्रणव साधक को नव-शिवरूप बना देता है, इसलिए ज्ञानी जन इसे प्रणव नाम से पुकारते हैं। महाशिव रात्रि को दिन-रात पूजा का विधान है। चार पहर दिन में शिवालयों में जाकर शिवलिंग पर जलाभिषेक कर बेलपत्र चढ़ाने से शिव की अनंत कृपा प्राप्त होती है। साथ ही चार पहर रात्रि में वेदमंत्र संहिता, रुद्राष्टा ध्यायी पाठ तपस्वी ब्राह्मणों के मुख से सुनना चाहिए। प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में सूर्योदय से पूर्व उत्तरांग पूजन कर आरती की तैयारी कर लेनी चाहिए। सूर्योदय के समय पुष्पांजलि एवं स्तुति कीर्तन के साथ महाशिव रात्रि का पूजन संपन्न होता है। उसके बाद दिन में ब्रह्मभोज भंडारा के द्वारा प्रसाद वितरण कर व्रत संपन्न होता हैं। शास्त्रों के अनुसार शिव को देवाधिदेव महादेव इसलिए कहा गया है कि वे देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, किन्नर, गंधर्व पशु-पक्षी एवं समस्त वनस्पति जगत के भी स्वामी हैं। शिव का एक अर्थ कल्याणकारी भी है। शिव की आराधना से संपूर्ण सृष्टि में अनुशासन, समन्वय और प्रेम भक्ति का संचार होने लगता है। स्तुति गान कहता है... मैं आपकी अनंत शक्ति को भला क्या समझ सकता हूँ। अतः हे शिव, आप जिस रूप में भी हों उसी रूप को मेरा प्रणाम। 
यादृशोऽसि महादेव, ता दृशाय नमोनमः।।
महाशिवरात्रि पर्व पूजन विधि
ज्योतिषीय दृष्टि से चतुदर्शी (1+4) अपने आप में बड़ी ही महत्वपूर्ण तिथि है। इस तिथि के देवता भगवान शिव हैं। जिसका योग 5 हुआ अर्थात्‌ पूर्णा तिथि बनती है, साथ ही कालपुरुष की कुण्डली में पांचवां भाव भक्ति का माना गया है। इस व्रत में रात्रि जागरण व पूजन का बड़ा ही महत्व है। इसके पश्चात्‌ सुगंधित पुष्प, गंध, चंदन, बिल्वपत्र, धतूरा, धूप-दीप, भांग, नैवेद्य आदि द्वारा रात्रि के चारों पहर में पूजा करनी चाहिए। श्रद्धा व विश्वासपूर्वक किसी शिवालय में या फिर अपने ही घर में उपरोक्त सामग्री द्वारा पार्थिव पूजन करना चाहिए। यह पूजन प्रत्येक पहर में करने का महत्व है। पूजन के समय 'ऊँ नमः शिवाय' मंत्र का जप करना चाहिए। 
हे देवों के देव!हे महादेव!हे नीलकण्ठ!हे विश्वनाथ!हे आदिदेव!हे उमानाथ!हे काशीपति! आप हमारे हर विघ्नों का नाश करें!!! इस व्रत में त्रयोदशी-चतुर्दशी तिथि साथ मानी जाती है। पुराणों के अनुसार भगवान शिव इस ब्रह्मांड के संहारक व तमोगुण से युक्त हैं। जो महाप्रलय की बेला में तांडव नृत्य करते हुए अपने तीसरे नेत्र से ब्रह्मांड को भस्म कर देते हैं। जो कालों के भी काल यानी महाकाल हैं। जहां सभी काल (समय) या मृत्यु ठहर जाते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड की गति वहीं स्थित या समाप्त हो जाती है। रात्रि की प्रकृति भी तमोगुणी है, इसीलिए इस पर्व को रात्रि-काल में मनाया जाता है। इसी प्रकार मास शिवरात्रि का व्रत भी है जो चैत्रादि सभी महीनों की कृष्ण चतुर्दशी को किया जाता है। इस व्रत में रात्रि तक रहने वाली चतुर्दशी तिथि का बड़ा ही महत्व है। अतः त्रयोदशी व चतुदर्शी का विलक्षण संयोग बहुत शुभ व फलदायी माना जाता है। यदि आप मासिक शिवरात्रि व्रत रखना चाह रहें हैं तो इसका शुभारंभ दीपावली या मार्गशीर्ष मास से करें तो शुभ रहता है।